क्यों मिटती नहीं वोट वाली स्याही? जानिए - वोटिंग के समय उंगली पर लगने वाली स्याही की कहानी

बिहार में विधानसभा चुनाव के लिए वोट डाले जा रहे हैं. पहले चरण की वोटिंग 6 नवंबर को और दूसरे चरण के लिए 11 नवंबर को वोट डाले जाएंगे. बिहार में 14 नवंबर को वोटों की गिनती होगी और नतीजे सामने आएंगे. वोटिंग के दौरान जो तस्वीरें सामने आती हैं, उनमें आपको वोटिंग वाली स्याही जरूर दिखती होगी, जब भी आपने वोट डाला होगा, तब आपकी उंगली पर भी यही स्याही लगाई गई होगी. ये स्याही काफी खास होती है और लाख कोशिशों के बावजूद नहीं मिटती है. ये पहले नीली और फिर गहरे काले रंग की हो जाती है और इसका रंग हटने में एक से दो महीने तक लग जाते हैं. आज हम आपको बताएंगे कि ये स्याही कैसे बनती है और इसकी एक बोतल की कीमत कितनी है.
बाएं हाथ की तर्जनी पर गाढ़ी नीली/बैंगनी रंग की यह स्याही आज भारत में चुनावी प्रक्रिया का पर्याय बन चुकी है. पहले आम चुनाव (1951-52) में भारतीय चुनाव आयोग (ईसीआई) की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि इस स्याही को कांच की सलाई से लगाया जाता था. इस रिपोर्ट के मुताबिक, "यह स्याही काफी संतोषजनक साबित हुई है, इसका प्रमाण इस तथ्य से मिलता है कि इसका इस्तेमाल कई स्थानीय निकायों के चुनावों में भी किया जा रहा है.'' राज्यों के पहले चुनावों में इस स्याही की कुल 3,89,816 बोतलें चुनाव आयोग ने खरीदी थी.
माई-गव वेबसाइट के मुताबिक, फर्जी मतदान से बचने के लिए 1960 के दशक में सीएसआईआर के वैज्ञानिकों ने इस स्याही पर काम शुरू किया. इस स्याही के लिए भारतीय चुनाव आयोग ने दरख्वास्त की थी. बाद में इसे नेशनल रिसर्च डेवलेपमेंट कॉर्पोरेशन ने पेटेंट करवा लिया. तीसरे आम चुनाव के लिए 1962 में पहली बार मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड को यह स्याही तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी और तभी से यही कंपनी इस चुनावी स्याही में रंग घोल रही है.
ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत में ही इस अमिट स्याही का इस्तेमाल चुनाव के दौरान किया जाता है. माई-गव वेबसाइट के मुताबिक, मैसूर पेंट्स की बनाई इस स्याही का 25 से ज्यादा देशों में निर्यात किया जाता है जिसमें कनाडा, नेपाल और दक्षिण अफ्रीका भी शामिल हैं. हालांकि स्याही लगाने का तरीका हर देश में अलग-अलग है.
क्यों लगाई जाती है स्याही?
सबसे पहले ये जान लेते हैं कि आखिर वोटिंग के दौरान ये स्याही लगाना क्यों जरूरी होता है. दरअसल इससे एक ही व्यक्ति को दो बार वोट डालने से रोका जाता है, यानी एक बार स्याही लगने के बाद वोटर की पहचान की जा सकती है और वो दोबारा वोट नहीं डाल सकता है. भारत ही नहीं, दुनिया के कई देशों में वोटर्स की पहचान के लिए इस स्याही का इस्तेमाल किया जाता है. इसी स्याही का इस्तेमाल पल्स पोलियो प्रोग्राम में भी किया जाता है. चुनाव में साल 1962 में पहली बार इस चुनावी स्याही का इस्तेमाल किया गया था.
क्यों नहीं मिटती स्याही?
इस स्याही को बनाने में सिल्वर नाइट्रेट का इस्तेमाल किया जाता है, इसके अलावा कुछ और केमिकल भी मिलाए जाते हैं. इसकी खास बात ये है कि इसे लगाने के बाद 20 से 40 सेकेंड में ही ये सूख जाती है और अपनी गहरी छाप छोड़ती है. नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी ऑफ इंडिया (NPL) ने चुनाव आयोग को ये फॉर्मूला दिया था. इस स्याही को बनाने का पूरा फॉर्मूला कभी सार्वजनिक नहीं किया गया, किसी भी दूसरी कंपनी को इसे बनाने की इजाजत भी नहीं है.
कितनी होती है कीमत?
साल 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान चुनाव आयोग की तरफ से 26 लाख स्याही की बोतलें ऑर्डर की गई थीं. जिनके लिए करीब 33 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया. इस हिसाब से देखा जाए तो एक बोतल स्याही की कीमत करीब 127 रुपये होती है. एक बोतल में 10 एमएल स्याही होती है, यानी एक एमएल स्याही की कीमत करीब 12.7 रुपये बैठेगी. वहीं एक लीटर की कीमत 12,700 होगी.